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किसी भी काम के करने को कर्म करना कहते है और कर्म मन वाणी या शरीर से किया जाता है | कर्म अच्छे या बुरे दोनों प्रकार के हो सकते है |
अच्छे या बुरे सभी तरह के कर्मो का भुगतान करना ही होता है | इसलिए कोशिश तो यही होनी चाहिये कि कर्म इकट्ठे ही ना हो पाए परन्तु ऐसा कदापि सम्भव ही नहीं है क्योंकी मन से किसी का अच्छा या बुरा सोचने पर भी या वाणी से किसी को बुरा या भला कहे जाने पर भी कर्म का निर्माण होता है ऐसा जरुरी नहीं कि शरीर के माध्यम से किसी का कुछ अच्छा या बुरा करने पर वो कर्म माना जाये !
इस प्रकार ये सभी क्रियाये ही कर्मो की श्रेणी में आते है |
हिन्दू धर्म के अनुसार कर्म तीन प्रकार के होते है – प्रारब्ध कर्म, संचित कर्म और क्रियामान कर्म !
प्रारब्ध कर्म– हमारे ही द्वारा पिछले जन्मो में किये गए पाप व पुण्य के कर्मो में से वे कर्म जिनका भुगतान या फल हमें इसी जन्म में भोगना है, वे प्रारब्ध कर्म है |
संचित कर्म – हमारे सभी पिछले अनंत जन्मो के पाप व पुण्य के कर्म जो काफी भारी मात्रा में एकत्रित है, वे संचित कर्म है |
क्रियामान कर्म – वर्तमान में किये जा रहे सभी पाप व पुण्य के कर्मो को क्रियामान कर्म कहते है |
इस प्रकार मनुष्य की पहचान कर्मों से होती है। उत्कृष्ट कर्मों से वह श्रेष्ठ बनता है, निकृष्ट कर्मों से पतित बनता है । कर्मानुसार फल भोगने का सिद्धांत अकाट्य है। भारतीय हिन्दू संस्कृति कर्म फल में विश्वास करती है। मनुष्य जो कुछ प्राप्त करता है, वह उसके कर्म का ही फल है।
जिस तरह आजकल सी.सी.टी.वी. कैमरे लगे होते हैं और हमारी हर गतिविधि उसमें कैद हो जाती है, उसी तरह हमारा हर एक कर्म भी एक सजीव कैमरे में सुरक्षित है। मानव निर्मित सी.सी.टी.वी. तो कभी खराब या बंद भी हो सकता है लेकिन इस सजीव कैमरे से बचने का कोई तरीका नहीं है। कई बार ऐसा होता है कि बुरे कर्म करते रहने पर भी किसी व्यक्ति को उसके बुरे कर्मों की सजा नहीं मिलती और हम मान लेते हैं कि भगवान ने अन्याय किया है जबकि वह व्यक्ति या तो अपने पूर्व जन्म के कर्मों का सुख भोग रहा होता है या उनके गुनाहों का घड़ा भरने में अभी कुछ समय होता है। भगवान हर व्यक्ति को उसके अवचेतन मन में कैद कर्मों के अनुसार परिणाम अवश्य देता है!
कर्म की महत्ता अद्वितीय है । हमारा अधिकार केवल कार्य करने पर है , फल प्राप्ति पर नहीं ।
गीता मे भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है –
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
हम कर्म करें , परन्तु फल की इच्छा न करें । यहां पर फल की इच्छा न करने का अर्थ है कि हम पहले से इस बारे मे चिंतित न हों । परिश्रम का फल मीठा होता है । जब हम कार्य करेंगे तो फल अवश्य ही मिलेगा । इस तरह से हमारे जीवन में कर्म का बहुत बड़ा महत्व है । कोई भी हो या कहीं भी हों , अपना कार्य मन लगा कर मेहनत से करें , सफलता अवश्य मिलेगी |
जीवन की सफलता के लिये कर्म करना अति आवश्यक है, भाग्य तो केवल उसमें मदद करता है कर्म के दो रूप माने जा सकते हैं। इस प्रकार भाग्य से कर्म को नहीं जीता जा सकता है लेकिन कर्म से भाग्य को जीता जा सकता है|सफलता ,असफलता कर्म पर ही निर्धारित है| |परिश्रम से किये गए हर कार्य में सफलता अवश्य मिलती है जो भाग्य को भी बदल देती है | भाग्य में जितना लिखा है उतना ही मिलेगा यह सोचकर हाँथ पर हाँथ धरे बैठने से भाग्य भी रूठ जाता है|
जिस प्रकार भाग्य से पुश्तैनी सम्पत्ति मिल जाती है किंतु उसे सँभाल कर रखने के लिये मेहनत करना पड़ता है |नहीं तो राजा से रंक बनने में देर नहीं लगती|
पूरा जीवन इसी ढर्रे पर कटता है। मरते समय भी ऐसे ही विचार सूक्ष्म शरीर के साथ चले जाते हैं। यहाँ यह भी समझना उचित होगा कि मृत्यु के उपरांत केवल हाड़–मांस का शरीर ही भस्मीभूत होता है उसमें से मन और आत्मा अपने संस्कारों को साथ लेकर पहले ही विदा हो चुके होते हैं। जब पुनर्जन्म होता है तो पिछले संस्कार साथ होते हैं। कर्म का फल मनुष्य को भोगना ही पड़ता है। कहा गया है– ‘ जो जस किया सो तस फल चाखा।‘
जीवन की सफलता मुख्यत: कर्म से ही मिलती है ।हाँ कभी–कभी हमारे कर्म में कोई कमी या अड़चन आ जाने से विलंब अवश्य हो जाता है ।साथ ही यदि हम भाग्य की बात करें तो वह भाग्य नहीं बल्कि हमारी कड़ी मेहनत का ही परिणाम होता है जो यदि तुरंत मिल जाता है तो उसे भाग्य से मिला मान लेते हैं।
उदाहरण :– दो व्यक्ति एक ही काम को कभी भी एक समान नहीं कर सकते।कार्य में नवीनता लाना, कुछ हुनर दिखाना, आकर्षक बनाना आदि कहीं न कहीं अंतर पैदा कर देते हैं और सफलता भी दोनों को उसी के आधार पर मिलती है ।हमारे द्वारा किए कार्य ही हमारे भाग्य का निर्माण करते हैं ।कभी–कभी परिस्थितियाँ, साधनों की कमी, अनुभव और परिश्रम हमारे कार्य की सफलता या असफलता का कारण बन जाते हैं।यदि किसी को संपत्ति वंशानुगत मिल भी जाती है तो उसे आगे बढ़ाने के लिए निरंतर कर्म करना ही पड़ता है ।एक कहावत है “बाबा पेड़ लगाए और पोता फल खाए“।लेकिन पोता यदि उस पेड़ को नहीं सींचेगा, खाद ना डाले तो वह पेड़ भी सूख जाएगा। भोजन करने के लिए भी मनुष्य को हाथ मुँह तक ले जाना ही पड़ता है इसलिए जीवन की सफलता कर्म ही है ।
सुप्तस्य सिंहस्य मुखे नहिं प्रविशन्ति मृगा: ।
सोते हुए शेर के मुख में अपने आप मृग (हिरन) प्रवेश नही करते हैं । अर्थात जंगल के राजा के पास आकर कोई भी जानवर नहीं कहता है कि महाराज जागो मैं आ गया हूं , मुझे खा लो । जंगल का राजा होते हुए भी शेर को अपनी भूख मिटाने के लिए श्रम या काम करना पड़ता है । जब जानवरों को भी कर्म करने की आवश्यकता है , तो हम तो मनुष्य हैं , हम कर्म से क्यों मुख मोड़ें । हम में सोचने समझने की शक्ति है । अत: हमें कर्म की महत्ता को जानना चाहिए ।