Writer, Inspiring The World | Inspiring Quotes | Motivation | Positivity

Hindi Moral Stories

लड्डू गोपाल की सेवा – Moral Story in Hindi

 248 

एक नगर में दो वृद्ध स्त्रियाँ बिल्कुल पास-पास रहा करती थीं। उन दोनों में बहुत घनिष्ठता थी। उन दोनोंं का ही संसार में कोई नहीं था इसलिए एक दूसरे का सदा साथ देतीं और अपने सुख-दुःख आपस में बाँट लेती थीं। एक स्त्री हिन्दू थी तथा दूसरी जैन धर्म को मानने वाली थी।

हिन्दू वृद्धा ने अपने घर में लड्डू गोपाल को विराजमान किया हुआ था। वह प्रतिदिन बड़े प्रेम से लड्डू गोपाल की सेवा करा करती थी। प्रतिदिन उनको स्नान कराना, धुले वस्त्र पहनाना, दूध व फल आदि भोग अर्पित करना उसका नियम था। वह स्त्री लड्डू गोपाल के भोजन का भी विशेष ध्यान रखती थी। सर्दी, गर्मी, बरसात हर मौसम का ध्यान उसको रहता था। वह जब भी कभी बाहर जाती लड्डू गोपाल के लिए कोई ना कोई खाने की वस्तु, नए वस्त्र खिलोने आदि अवश्य लाती थी। लड्डू गोपाल के प्रति उसके मन में आपार प्रेम और श्रद्धा का भाव था।

उधर जैन वृद्धा भी अपनी जैन परम्परा के अनुसार भगवान् के प्रति सेवा भाव में लगी रहती थी। उन दोनोंं स्त्रियों के मध्य परस्पर बहुत प्रेम भाव था। दोनोंं ही एक दूसरे के भक्ति भाव और धर्म की प्रति पूर्ण सम्मान की भावना रखती थी। जब किसी को कोई समस्या होती तो दूसरी उसका साथ देती, दोनोंं ही वृद्धाएँ स्वभाव से भी बहुत सरल और सज्जन थीं। भगवान की सेवा के* *अतिरिक्त उनका जो भी समय शेष होता था वह दोनोंं एक दूसरे के साथ ही व्यतीत करती थीं।

एक बार हिन्दू वृद्धा को एक माह के लिए तीर्थ यात्रा का अवसर प्राप्त हुआ उसने दूसरी स्त्री से भी साथ चलने का आग्रह किया किन्तु वृद्धावस्था के कारण अधिक ना चल पाने के कारण उस स्त्री ने अपनी विवशता प्रकट कर दी। हिन्दु वृद्धा ने कहा कोई बात नहीं मैं जहाँ भी जाऊँगी भगवान् से तुम्हारे लिए प्रार्थना करुँगी फिर वह बोली मैं तो एक माह के लिए चली जाऊँगी तब तक मेरे पीछे मेरे लड्डू गोपाल का ध्यान रखना। उस जैन वृद्धा ने सहर्ष ही उसका यह अनुरोध स्वीकार कर लिया। हिन्दू वृद्धा ने उस जैन वृद्धा को लड्डू गोपाल की सेवा के सभी नियम व आवश्यकताएँ बता दीं। उस जैन वृद्धा ने सहर्ष सब कुछ स्वीकार कर लिया।

कुछ दिन बाद वह हिन्दू वृद्धा तीर्थ यात्रा के लिए निकल गई। उसके जाने के बाद लड्डू गोपाल की सेवा का कार्य जैन वृद्धा ने अपने हाथ में लिया। वह बहुत उत्त्साहित थी कि उसको लड्डू गोपाल की सेवा का अवसर प्राप्त हुआ। उस दिन उसने बड़े प्रेम से लड्डू गोपाल की सेवा की। भोजन कराने से लेकर रात्रि में उनके शयन तक के सभी कार्य पूर्ण श्रद्धा के साथ वैसे ही पूर्ण किए जैसे उसको बताए गए थे। लड्डू गोपाल के शयन का प्रबन्ध करके वह भी अपने घर शयन के लिए चली गई।

अगले दिन प्रातः जब वह वृद्धा लड्डू गोपाल की सेवा के लिए हिन्दू स्त्री के घर पहुँची तो उसने सबसे पहले लड्डू गोपाल को स्नान कराने की तैयारी की। नियम के अनुरूप जब वह लड्डू गोपाल को स्नान कराने लगी तो उसने देखा की लड्डू गोपाल के पाँव पीछे की और मुड़े हुए हैं। उसने पहले कभी लड्डू गोपाल के पाँव नहीं देखे थे, जब भी उनको देखा वस्त्रों में ही देखा था। वह नहीं जानती थी कि लड्डू गोपाल के पाँव हैं ही ऐसे, घुटनों के बल बैठे हुए। लड्डू गोपाल के पाँव पीछे की ओर देख कर वह सोचने लगी अरे मेरे लड्डू गोपाल को यह क्या हो गया इसके तो पैर मुड़ गए है। उसने उस हिन्दू वृद्धा से सुन रखा था की लड्डू गोपाल जीवंत होते हैं। उसने मन में विचार किया कि मैं इनके पैरो की मालिश करुँगी हो सकता है इनके पाँव ठीक हो जायें।  बस फिर क्या था भक्ति भाव में डूबी उस भोली भाली वृद्धा ने लड्डू गोपाल के पैरों की मालिश आरम्भ कर दी। उसके बाद वह नियम से प्रतिदिन पांच बार उनके पैरों की मालिश करने लगी। उस भोली वृद्धा की भक्ति और प्रेम देख कर ठाकुर जी का हृदय द्रवित हो उठा। भक्त वत्सल भगवान् अपनी करुणावश अपना प्रेम उस वृद्धा पर उड़ेल ददिया।

एक दिन प्रातः उस जैन वृद्धा ने देखा की लड्डू गोपाल के पाँव ठीक हो गए हैं और वह सीधे खड़े हो गए हैं, यह देख कर वह बहुत प्रसन्न हुई और दूसरी स्त्री के आने की प्रतीक्षा करने लगी।

कुछ दिन पश्चात् दूसरी स्त्री वापस लौटी तो उसने घर आकर सबसे पहले अपने लड्डू गोपाल के दर्शन किये किन्तु जैसे ही वह लड्डू गोपाल के सम्मुख पहुँची तो देखा कि वह तो अपने पैरों पर सीधे खड़े हैं। यह देखकर वह अचंभित रह गई।

वह तुरन्त उस दूसरी स्त्री के पास गई और उसको सारी बात बताई और पूछा कि मेरे लड्डू गोपाल कहां गए?

यह सुनकर उस जैन स्त्री ने सारी बात बता दी।

उसकी बात सुनकर वह वृद्ध स्त्री सन्न रह गई और उसको लेकर अपने घर गई। वहाँ जाकर उसने देखा तो लड्डू गोपाल मुस्करा रहे थे।*

वह लड्डू गोपाल के चरणों में गिर पड़ी और बोली – हे गोपाल! आपकी लीला निराली है। मैंने इतने वर्षो तक आपकी सेवा की किन्तु आपको नहीं पहचान सकी तो वह उस जैन वृद्धा से बोली कि, तू धन्य है! तुझको नहीं मालूम कि हमारे लड्डू गोपाल के पाँव तो ऐसे ही हैं, पीछे की ओर किन्तु तेरी भक्ति और प्रेम ने तो लड्डू गोपाल के पाँव भी सीधे कर दिये।

उस दिन के बाद उन दोनोंं स्त्रियों के मध्य प्रेम भाव और अधिक बढ़ गया। दोनोंं मिलकर लड्डू गोपाल की सेवा करने लगीं। वह दोनोंं स्त्रियां जब तक जीवित रहीं तब तक लड्डू गोपाल की सेवा करती रहीं।

 

अनहोनी – Moral Story in Hindi

 218 

 गरीबी से जूझती सरला दिन-ब-दिन परेशान रहने लगी थी।भगवान के प्रति उसे असीम श्रद्धा थी और नित नेम करके ही वह दिन की शुरुआत करती थी।
                आज भी नहा धोकर घर की पहली मंजिल पर बने पूजाघर में जाकर उसने श्रद्धा के साथ धूपबत्ती की और कल रात जो उसके पति को तनख्वाह मिली थी,उसे भगवान के चरणों में अर्पित कर दी। पूजा खत्म करके वह घर के कामों में लग गई। बच्चों को तैयार करके उसने स्कूल भेज दिया और पति के लिए चाय नाश्ता बनाने लगी। पति नहाकर जैसे ही पूजा घर की तरफ़ बढ़ा।कमरे से धुआँ निकल रहा था,वह अंदर की तरफ़ भागा”सरला!”उसने ज़ोर से आवाज दी।
“क्या हुआ”वह भी आवाज सुनकर ऊपर की तरफ़ भागी।”हाय राम!यह क्या हुआ?”
            कमरा धुएं से भर गया था,शायद पंखे के कारण जोत से आग फैल गई थी।पास पड़ी सब धार्मिक किताबें और कुछ फोटो जल कर राख हो गए थे।वह वहीं जमीन पर बैठ गई।अब क्या होगा कैसे बताए पति को कि जो पैसा वह महीना भर मेहनत करके लाया था,सब उसने स्वाह कर दिया। उसका अंतर्मन रो रहा था।
          “चलो कोई बात नहीं अब जो होना था सो हो गया।शुक्र करो कमरे में कोई सामान नहीं था,नहीं तो पता नहीं क्या होता।”
              “यह सब बाद में संभाल लेना।अभी मुझे काम के लिए लेट हो रहा है।”सरला का दिल बैठा जा रहा था,मन ही मन खुद को कोसती जा रही थी।क्या जवाब देगी पति को जब वह पैसे के लिए पूछेगा?
        “सामान की लिस्ट बना लेना,शाम को बाज़ार चलेंगे,राशन वगैरह लाना है ना।””हाँ!बना लूंगी,दुःखी मन से वह बोली।”
          पति के निकलते ही उसने घर को ताला लगाया और अपने सुख दुःख की सहेली रूक्मणी के घर पहुंची,उसे देखते ही सरला रोते हुए उससे लिपट गई”अरे क्या हुआ,रो क्यों रही हो?
         सारी घटना सुनकर वह भी परेशान हो गई, उसे सांत्वना देती हुई बोली,”भगवान पर भरोसा रखो वह सब भली करेंगे।”
         वह चुपचाप उठी और बोझिल कदमों से घर  की तरफ़ चल दी। घर का ताला खोल बुझे मन से वह पूजा घर में जाकर बैठ गई। जले हुए सामान के बीच भगवान की फोटो उल्टी पड़ी हुई थी, उसने उसे सीधा कर दिया।तभी उसकी आंखें फैल गई।जिस प्लेट में उसने रूपए रखे थे वह ज्यों के त्यों सही सलामत पड़े थे।कांच का फ्रेम होने के कारण उसने प्लेट को पूरी तरह ढक दिया था।
          अचानक यह सब देख सरला की आंखों से ख़ुशी के आंसुओं का सैलाब बहने लगा।भगवान के प्रति उसका विश्वास और आस्था अचानक से और मजबूत महसूस होने लगी।
          *शिक्षा:- अपने भगवान पर हमेशा विश्वास बनाए रखे।मेरे भगवान कभी किसी का गलत या अमंगल होने नहीं देते।
          कभी कभी आपको लगता होगा कि आपकी ज़िन्दगी में कुछ भी सही नहीं चल रहा है। आप सोचते कुछ और हैं और होता कुछ और है।पर कुछ समय बीतने के बाद आपको एहसास होता है कि जो हुआ था अच्छा ही हुआ।बस आपको उनपर पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिये और एक बात
हर हाल में सब्र बनाए रखे।’

पालन हार एक – Moral Story

 214 

किसी नगर में एक सेठ जी रहते थे। उनके घर के नजदीक ही एक संत महात्मा रहता था।एक रात्रि को संत महात्मा के सत्संग भजन की ध्वनि के कारण उन्हें ठीक से नींद नहीं आयी।
सुबह उन्होंने संत जी को खूब डाँटा कि:- यह सब क्या है ?

संत जी बोले:-परमपिता परमात्मा का सत्संग भजन कीर्तन चल रहा था।
सेठजी बोले:- सत्संग भजन करते हो, तो क्या हमारी नींद हराम करोगे ?अच्छी नींद के बाद ही व्यक्ति काम करने के लिए तैयार हो पाता है फिर कमाता है, तब खाता है।
*इसके बाद संत और सेठ के बीच हुआ संवाद…….*

संत:- *”सेठजी ! खिलाता तो वह खिलाने वाला ही है।”*

सेठजी:- *”कौन खिलाता है ? क्या तुम्हारा भगवान खिलाने आयेगा?”*

संत:- “वही तो खिलाता है।”

सेठजी:- *”क्या भगवान खिलाता है, हम कमाते हैं तब खाते हैं।”*

संत:- *”निमित्त होता है तुम्हारा कमाना,और पत्नी का रोटी बनाना, बाकी सब को खिलाने वाला,सब का पालनहार तो वह परमात्मा ही है।”*
सेठजी:- “क्या पालनहार – पालनहार लगा रखा है !
बाबा आदम के जमाने की बातें करते हो।क्या तुम्हारा पालने वाला एक – एक को आकर खिलाता है? हम कमाते हैं तभी तो खाते हैं।

संत:- *”सभी को वही खिलाता है।”*

सेठजी:- “हम नहीं खाते उसका दिया।”

संत:- *”नहीं खाओ तो मारकर भी खिलाता है।”*.

सेठ ने कहा:- *”संत जी ! अगर तुम्हारा भगवान मुझे चौबीस घंटों में नहीं खिला पाया तो फिर तुम्हें अपना यह भजन-सत्संग सदा के लिए बंद करना होगा।”*

संत:- “मैं जानता हूँ कि तुम्हारी पहुँच बहुत ऊपर तक है, लेकिन उसके हाथ बड़े लम्बे हैं।जब तक वह नहीं चाहता, तब तक किसी का बाल भी बाँका नहीं हो सकता आजमा कर देख लेना।

संत की निष्ठा परखने के लिये सेठ जी घोर जंगल में चले गये और एक विशालकाय वृक्ष की ऊँची डाल पर ये सोचकर बैठ गये कि अब देखें इधर कौन खिलाने आता है ?
चौबीस घंटे बीत जायेंगे और संत की हार हो जायेगी। सदा के लिए सत्संग की झंझट मिट जायेगी।

तभी एक अजनबी आदमी वहाँ आया।उसने उसी वृक्ष के नीचे आराम किया,फिर अपना सामान उठाकर चल दिया, लेकिन अपना एक थैला वहीं भूल गया।
*भूल गया कहो या छोड़ गया कहो*

*भगवान ने किसी मनुष्य को प्रेरणा दी थी अथवा मनुष्य के रूप में साक्षात् भगवान ही वहाँ आये थे यह तो भगवान ही जानें !*
थोड़ी देर बाद पाँच डकैत वहाँ पहुँचे उनमें से एक ने अपने सरदार से कहा, “उस्ताद ! यहाँ कोई थैला पड़ा है।”

क्या है ? जरा देखो ! खोल कर देखा, तो उसमें गरमा – गरम भोजन से भरा टिफिन!

उस्ताद भूख लगी है. लगता है यह भोजन भगवान ने हमारे लिए ही भेजा है।
अरे ! तेरा भगवान यहाँ कैसे भोजन भेजेगा ? हम को पकड़ने या फँसाने के लिए किसी शत्रु ने ही जहर-वहर डालकर यह टिफिन यहाँ रखा होगा,अथवा पुलिस का कोई षडयंत्र होगा। इधर उधर देखो जरा,कौन रखकर गया है।

उन्होंने इधर-उधर देखा,लेकिन कोई भी आदमी नहीं दिखा। तब डाकुओं के मुखिया ने जोर से आवाज लगायी,कोई हो तो बताये कि यह थैला यहाँ कौन छोड़ गया है ?
सेठजी ऊपर बैठे – बैठे सोचने लगे कि अगर मैं कुछ बोलूँगा तो ये मेरे ही गले पड़ेंगे।
वे तो चुप रहे,लेकिन
*जो सबके हृदय की धड़कनें चलाता है,भक्तवत्सल है, वह अपने भक्त का वचन पूरा किये बिना शाँत नहीं रहता.*

उसने उन डकैतों को प्रेरित किया और उनके मन में प्रेरणा जागी कि ..’ऊपर भी देखो.’ उन्होंने ऊपर देखा तो वृक्ष की डाल पर एक आदमी बैठा हुआ दिखा।डकैत चिल्लाये, अरे ! नीचे उतर!
सेठजी बोले, मैं नहीं उतरता.
क्यों नहीं उतरता, यह भोजन तूने ही रखा होगा।

सेठजी बोले, मैंने नहीं रखा।कोई यात्री अभी यहाँ आया था,वही इसे यहाँ भूलकर चला गया.
नीचे उतर!तूने ही रखा होगा जहर मिलाकर,और अब बचने के लिए बहाने बना रहा है।
तुझे ही यह भोजन खाना पड़ेगा.
*अब कौन-सा काम वह सर्वेश्वर किसके द्वारा,किस निमित्त से करवाये अथवा उसके लिए क्या रूप ले,यह उसकी मर्जी की बात है.बड़ी गजब की व्यवस्था है उस परमेश्वर की.*
सेठजी बोले:- *”मैं नीचे नहीं उतरूँगा और खाना तो मैं कतई नहीं खाऊँगा”।*

पक्का तूने खाने में जहर मिलाया है. अरे ! नीचे उतर अब तो तुझे खाना ही होगा।

सेठजी बोले:- *”मैं नहीं खाऊँगा, नीचे भी नहीं उतरूँगा।”*
अरे कैसे नहीं उतरेगा.
सरदार ने एक आदमी को हुक्म दिया इसको जबरदस्ती नीचे उतारो।डकैत ने सेठ को पकड़कर नीचे उतारा।

*ले खाना खा!*

सेठ जी बोले:- *”मैं नहीं खाऊँगा।*
उस्ताद ने धड़ाक से उनके मुँह पर तमाचा जड़ दिया।
सेठ को संत जी की बात याद आयी कि:- *”नहीं खाओगे तो, मारकर भी खिलायेगा”।*
सेठ फिर बोला:- *”मैं नहीं खाऊँगा।”*
अरे कैसे नहीं खायेगा ! इसकी नाक दबाओ और मुँह खोलो.

डकैतों ने सेठ की नाक दबायी, मुँह खुलवाया और जबरदस्ती खिलाने लगे।वे नहीं खा रहे थे, तो डकैत उन्हें पीटने लगे।

तब सेठ जी ने सोचा कि ये पाँच हैं और मैं अकेला हूँ।
नहीं खाऊँगा तो ये मेरी हड्डी पसली एक कर देंगे।
इसलिए चुपचाप खाने लगे और मन-ही-मन कहा:- *”मान गये मेरे बाप ! मार कर भी खिलाता है!”*

डकैतों के रूप में आकर खिला, चाहे भक्तों के रूप में आकर खिला लेकिन खिलाने वाला तो तू ही है।अपने संत की बात सत्य साबित कर दिखायी।
सेठजी के मन में भक्ति की धारा फूट पड़ी।

उनको मार-पीट कर …डकैत वहाँ से चले गये, तो सेठजी भागे और संत जी के पास आकर बोले:- *”संत जी ! मान गये आपकी बात कि नहीं खायें तो वह मार कर भी खिलाता है।”*

*संसार जगत में निमित्त तो कोई भी हो सकता है किन्तु सत्य यही है कि ईश्वर ही जगत की व्यवस्था का कुशल संचालन करते हैं।अतः अपने जगत के आधार ईश्वर पर विश्वास ही नहीं बल्कि दृढ़ विश्वास होना चाहिए ।*